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24 वर्षों में हुए चार लोकसभा चुनावों में आपदा कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया

Dehradun: पिछले 24 वर्षों में हुए चार लोकसभा चुनावों में आपदा कभी बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया। राजनीतिक दलों की उपलब्धियों, राष्ट्रीय और राज्य के अवस्थापना और बुनियादी विकास से जुड़े मुद्दों के शोर में आपदा का मुद्दा हमेशा नेपथ्य में रहा, जबकि हिमालयी राज्य उत्तराखंड हर साल बाढ़, भूस्खलन, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेलता रहा है।

केदारनाथ आपदा, रैणी आपदा, जोशीमठ आपदा…समेत तमाम ऐसे जख्म हैं, जिनमें सैकड़ों घरों के चिराग बुझ गए। हजारों करोड़ रुपये की परिसंपत्तियों का नुकसान अलग हुआ। इन आपदाओं के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए फौरीतौर पर सरकारों ने प्रयास किए, लेकिन आपदाओं के जोखिम को कम करने के उपायों के बारे में राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों ने कभी गंभीर चुनावी चर्चा नहीं की। लगातार दरकते पहाड़ और खतरों के साये में जी रहे लोग, ये सवाल पूछे रहे हैं कि आपदा को कब मुद्दा माना जाएगा।

हर साल भारी जानमाल को हो रहा नुकसान

हर साल राज्य में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से भारी नुकसान होता है। 20 साल का इतिहास देखें तो करीब 5,700 लोगों ने अपनी जान गंवाई और 2000 से ज्यादा गंभीर घायल हुए हैं। आपदा से होने वाले नुकसान का आंकड़ा भी बढ़ता जा रहा है। 2020 से 2023 तक की चार साल की अवधि में उत्तराखंड में भारी नुकसान हुआ, जिसमें 213 लोग हताहत हुए, जबकि 5,275 लोग प्रभावित हुए। 553 पशु मारे गए। 301 घर ढह गए। 68 गांव प्रभावित हुए। 40 पुल ढह गए और 4,990 मीटर सड़कें क्षतिग्रस्त हो गईं। हर साल औसतन 1500 से 2000 करोड़ का नुकसान इन आपदाओं की वजह से होता आ रहा है।

2015 से 2021 तक आपदा में हुए नुकसान

वर्ष                     मानवहानि      पशुहानि           ध्वस्त घर फसल क्षति (हेक्टेयर)

2015-16             55                  277                     1313 15.47900

2016-17             119             1391                     3243 112.235

2017-18             87                1020                   1602 21.0440

2018-19             107               816                    2920 566.589

2019-20             109              1327                 1599 320.20300

2020-21             91                724                      1688 207.41900

2021-22             226              867                    1078 120.69600

(स्रोत: आपदा प्रबंधन विभाग। 2022 व 2023 का डाटा अभी तैयार नहीं)

 

भूकंप के दृष्टिकोण से संवेदनशील

हिमालयी राज्य उत्तराखंड में भूकंप का खतरा भी कम नहीं है। भूकंपीय दृष्टि से उत्तराखंड अति संवेदनशील जोन पांच व चार के अंतर्गत आता है। यहां के पांच जिले उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग (अधिकांश भाग), पिथौरागढ़ व बागेश्वर अति संवेदनशील जोन पांच में हैं। पौड़ी, हरिद्वार, अल्मोड़ा, चंपावत, नैनीताल व ऊधमसिंह नगर जोन चार में हैं। टिहरी और देहरादून ऐसे जिले हैं, जो दोनों जोन में आते हैं। यही कारण है कि भूकंप का केंद्र कहीं रहे, उसका असर उत्तराखंड में भी दिखता है। विश्व के इस नवीनतम पर्वतीय क्षेत्र में हमेशा भूकंप, बाढ़, भूस्खलन, एवलांच, सूखा और आग आदि घटनाएं होती रही हैं। ऐतिहासिक अभिलेखों में जुलाई 1720 में दिल्ली, 1803 के बदरीनाथ के भूकंप से लेकर वर्तमान तक कई बार उत्तराखंड की धरती हिलती रही है। 1809 में गढ़वाल, 26 मई 1816 में गंगोत्री, पांच मार्च 1842 को मसूरी, 11 अप्रैल 1865 को पुनः मसूरी में, 25 जुलाई 1869 नैनीताल, 28 अक्तूबर 1916 में 7.5 पैमाने पर भूकंप आया। इसी प्रकार 1937 में आठ की तीव्रता का भूकंप देहरादून में, 27 जुलाई 1966 में कपकोट-धारचुला, 21 मई 1979 को सेराघाट में, 29 जुलाई 1980 को धारचुला, 20 अक्तूबर 1991 को उत्तरकाशी, 29 मार्च 1999 को चमोली में बड़े भूकंप के अलावा छोटे-छोटे भूकंप ने बार-बार राज्य के सीने पर जख्म दिए हैं।

एक नजर में उत्तराखंड में हुई प्रमुख आपदाएं।

23 जून 1980-उत्तरकाशी में भूस्खलन से तबाही।

1991-1992-चमोली के पिंडर घाटी में भूस्खलन से नुकसान।

11 अगस्त 1998-रुद्रप्रयाग के ऊखीमठ में भूस्खलन।

18 अगस्त 1998-पिथौरागढ़ के मालपा में भूस्खलन में लगभग 350 लोगों की हुई मृत्यु।

10 अगस्त 2002-टिहरी के बुढाकेदार में भूस्खलन।

2 अगस्त 2004-टिहरी बांध में टनल धसने से 29 लोगों की हुई मौत।

7 अगस्त 2009-पिथौरागढ़ के मुनस्यारी में अतिवृष्टि।

17 अगस्त 2010-बागेश्वर के कपकोट में स्कूल में हुए भूस्खलन से 18 बच्चों की हुई मौत।

16 जून 2013-केदारनाथ में हुई जल प्रलय से हजारों लोगों की मौत।

16 जून 2013-पिथौरागढ़ के धारचूला धौलीगंगा व काली नदी में आपदा।

7 फरवरी 2021-रैणी आपदा से सुरंगों में काम करने वाले 200 मजदूरों की मौत।

2023-जोशीमठ में जमीन धंसने से मकानों में दरारें, अभी तक जूझ रहे लोग।

 

13 झीलों के टूटने का खतरा, केंद्र सतर्क

राज्य की 13 ग्लेशियर झीलें ऐसी हैं, जिन पर टूटने का खतरा मंडरा रहा है। इनमें से पांच झीलों को अति संवेदनशील मानते हुए गृह मंत्रालय ने वैज्ञानिकों की दो टीमें इनके सर्वे में लगा दी हैं। केदारनाथ आपदा में भी ऐसे ही चौराबाड़ी ग्लेशियर टूटने पर झील टूट गई थी, जिससे भारी तबाही हुई थी।

400 गांव संवेदनशील, पुनर्वास में बजट की कमी बाधक

प्रदेश में कई प्राकृतिक आपदाओं में करीब 400 गांव इतने संवेदनशील हैं कि इनका सुरक्षित स्थानाें पर विस्थापन और पुनर्वास होना जरूरी है, लेकिन बजट की कमी भी बाधक है। प्रभावित परिवारों के विस्थापन के लिए अच्छी-खासी धनराशि की जरूरत होती है और राज्य की आर्थिक स्थिति किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में राज्य की स्थिति का वास्ता देते हुए केंद्र सरकार में मजबूती से यहां का पक्ष रखना चाहिए, ताकि वहां से आर्थिक मदद मिल सके और आपदा प्रभावितों का विस्थापन हो सके। बजट पर तब असर पड़ता है जब केंद्र व राज्य में अलग-अलग सरकारें होती हैं। वैसे प्रदेश में आपदा प्रभावितों के विस्थापन एवं पुनर्वास की नीति लागू है। वर्ष 2011 में अस्तित्व में आई नीति के तहत अब तक 85 गांवों के 1458 परिवारों का ही विस्थापन-पुनर्वास हो पाया है। इसमें भी 83 गांवों के 1447 परिवारों का विस्थापन-पुनर्वास पिछले पांच वर्षों के दौरान हुआ। इस पर 61.02 करोड़ रुपये की राशि खर्च की गई।

इसमें कोई दोराय नहीं कि आपदा आज तक किसी चुनाव का मुख्य मुद्दा नहीं बन पाया। राजनीतिक दल केवल जनता को रिझाने के लिए उनकी मांग के हिसाब से काम करते हैं। जनता विकास चाहती है, तो वे विकास करते हैं, लेकिन वह विकास हर साल आपदाओं की भेंट भी चढ़ता है। मेरा मानना है कि जनता को यह समझना होगा कि आपदा कितना बड़ा मुद्दा है। जनता जागरूक होगी तो राजनीतिक दल उसी हिसाब से इसे तवज्जो देंगे। – पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी, पर्यावरणविद्

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